वन संपदा की सुरक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण समितियों के गठन की आवश्यकता-विनोद जुगलान

वन संपदा की सुरक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण समितियों के गठन की आवश्यकता-विनोद जुगलान

ऋषिकेश- उत्तराखंड में जँगलों की आग ने एक बार फिर सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है।धधकते जंगलों को लेकर पर्यावरण विद् विनोद जुगलान ने गहरी चिंता जताई है।उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि फायर सीजन में हर साल लगने वाली इस आग से पर्यावरणीय पारिस्थिकी सन्तुलन पर प्रभाव पड़ेगा वहीं दूसरी ओर देवभूमि उत्तराखंड में जैवविविधता की बड़ी हानि होनी निश्चित है।यह हानि कितनी विशाल होगी इसका अनुमान लगाना अभी मुश्किल है।उसका प्रमुख कारण है कि अभी सभी सम्बन्धित अधिकारियों का ध्यान फिलहाल वनाग्नि को नियंत्रित करने पर है। बकोल जुगलान के अनुसार जो आँकड़े वन विभाग की ओर से आ रहे हैं उनसे अभी इतना ही पता चल पाया है कि अभी तक वनाग्नि की लगभग नौ सौ नब्बे घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें 1297.43 हेक्टेयर वन सम्पदा जल चुकी है।





जंगलों में वनाग्नि की घटनाओं पर चिंता जताते हुए पर्यावरण विनोद जुगलान ने कहा कि आखिर हर साल वनों की आग से होने वाली इन घटनाओं से न केवल हमारी प्राकृतिक वन संपदा नष्ट हो रही है बल्कि बड़ी मात्रा में जैव विविधता प्रभावित होने के साथ-साथ मानवीय जीवन भी प्रभावित हो रहा है।गर्मियों में चलने वाली तेज हवाओं से बांस के जँगलों में होने वाले घर्षण के कारण साथ ही सूर्य की गर्मी से प्राकृतिक रूप से बढ़ने वाले तापमान प्राकृतिक रूप से लगने वाली वनाग्नि को जन्म देती हैं।इसके अतिरिक्त मानव जनित अग्नि भी वनों में आग का कारण बन रही है।ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पहले कभी वनों को आग से नुकसान नहीं होता था या वनों में आग की घटनाएं नहीं होती थीं।लेकिन वनाग्नि की अगर बात करें तो पहले की अपेक्षा आग की घटनाएं ज्यादा विकराल दिखाई देती हैं।उसका कारण है कि पहाड़ों से पलायन के साथ ही हमारा वनों से सीधा सम्बन्ध टूटता चला गया।खेत खलिहान बंजर होने लगे तो घर आँगन वीरान होते चले गए उनकी जगह छोटी छोटी झाड़ियों ने ले ली।गर्मियों में अपने पौराणिक और मूल आवास में लौटने वाले लोग यदि अपने घर आँगन में स्वाभाविक रूप से दैनिक कूड़े के निस्तारण के लिए यदि कूड़ा जलाते हैं और यदि गलती से एक चिंगारी खेतों की ओर बढ़ जाती है तो ये खेत खलिहान में उगी सूखी झाड़ियां जंगल की आग के लिए बारूद का कार्य करती हैं।दूसरी ओर वन अधिनियम 1980 के तहत गठित रिजर्व पार्क में आम जनता की आवाजाही पर पूर्ण रूप से रोक लगाने के साथ ही पलायन के कारण पहाड़ों में कम हुई जनसंख्या जैसे कारणों से वनों के प्रति मानवीय संवेनशीलता की कमी से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में वनाग्नि से जितने जंगल जल रहे हैं उससे कहीं अधिक हमारे युवाओं को नशे में झुलस रहे हैं।इससे मानवीय और प्राकृतिक संपदा दोनों प्रभावित हो रही हैं।लेकिन इस पहलू पर अभी ज्यादातर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।राज्य स्थापना के बाद राज्य में राजस्व प्राप्ति के लिए जिस तरह आए दिन सरकारों ने दूरस्थ पहाड़ में शराब चढ़ाने का कार्य किया।उससे बेरोजगारी की आग में जल रहे युवाओं में इस शराब ने उनके जीवन में आग में घी डालने और जीवन में जहर घोलेने का कार्य किया।अब स्थिति यह है कि युवाओं में सामाजिक सरोकारों की कमी के साथ संवेनशीलता भी कम हो रही है।पर्यावरण विद व शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त पर्यावरण प्रमुख जुगलान के अनुसार नशे की गिरफ्त में आ चुके युवा बंजर हो चुकी छानियों सहित जँगलों में पिकनिक पार्टी के लिए जाते हैं तो नशे में अचानक कब जँगल में आग लग जाए कहा नहीं जा सकता है।पहाड़ों में लगातार हुए पलायन के कारण जनसँख्या की कमी से जँगलों की आग पर काबू पाना वन विभाग के लिए चुनौती बन जा रही है।कभी कभी वन तस्कर भी वनाग्नि को जन्म देते हैं।प्राकृतिक रूप से लगने वाली वनाग्नि पर नियंत्रण पाना तो कठिन है लेकिन जब मानव जनित आग वनों में लगती है तो इस पर वन विभाग को नियंत्रण पाना कठिन ही नहीं असंभव सा प्रतीत होता है।इसका प्रमुख कारण है कि एक रेंज अधिकारी के पास हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र की जिम्मेदारी होती है। उन्होंने बताया जँगलों में हर साल गर्मियों में लगने वाली इस आग से न केवल पर्यावरण को भारी नुकसान होता है बल्कि जीव-जन्तुओं के साथ साथ विभिन्न प्रजातियों की वनसंपदा और वनभूमि की मृदा जलकर खाक हो जाती है जो जैवविविधता को जन्म देने में सहायक होते हैं।यह जैवविविधता ही हमारी जलवायु को प्रभावित करती है।इसके संरक्षण को बचावी प्रबन्धन की आवश्यता पर बल देना होगा जबकि हम वनाग्नि भड़क जाने के बाद हर साल उसके रोकने के प्रयासों की बात करते हैं।अगर जीव और वन रहेंगे तो मानव जीवन रहेगा तभी हमारी आने वाली नस्लों को स्वच्छ प्राण वायु मिल सकेगी।वन सम्पदा के प्रभावी संरक्षण को लेकर हमारी सरकारों को युवा पीढ़ी में जनजागरूकता और वनों के प्रति संवेदनशीलता के लिए प्राथमिक शिक्षा से ही प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है।एक अध्ययन के अनुसार देश में जलावनी लकड़ी के प्रयोग करने वाले राज्यों में उत्तराखंड सबसे आगे है।और दक्षिण एशिया में हर साल होने वाले वनाग्नि के मामलों में भारत सबसे आगे है।इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम वन संपदा के मामलों में अन्य देशों से अधिक धनी हैं।लेकिन प्रश्न इस बात का है कि सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत को आज फिर से संरक्षित करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।इसमें जनता जनार्दन के साथ साथ नीति नियंताओं को ध्यान देने की जरूरत है।साथ ही वनविभाग को वनाग्नि से झूझने के साथ साथ वनों में जानबूझकर आग लगाने वालों के साथ कड़ाई से निबटने आमजन से सहयोग और संवाद स्थापित करने पर भी जोर देना होगा। उन्होंने कहा कि शासन को विभाग के माध्यम से ग्राम स्तर पर पर्यावरण संरक्षण समितियों के गठन की प्रक्रियाओं को समय रहते क्रियान्वित करना होगा तभी हमारी वन संपदा और भावी पीढ़ी सुरक्षित हो सकेगी।

error: Content is protected !!
%d bloggers like this: