प्रकृति से छेड़छाड़ बन रही है आपदाओं का कारण-विनोद जुगलान

प्रकृति से छेड़छाड़ बन रही है आपदाओं का कारण-विनोद जुगलान
ऋषिकेश- हिमालय बचाओ पर्यावरण आंदोलकारी और पर्यावरण मामलों के जानकार हैं विनोद जुगलान का कहना है कि प्रकृति से लगातार हो रही लगातार छेड़छाड़ आपदाओं का बड़ा कारण बन रही है।हरित प्रदेश उत्तराखंड में विकास के नाम पर पेड़ों पर चल रही आरियों के कारण जहां एक और पर्यावरण प्रदूषण का खतरा मंडरा रहा है वहीं ग्लोबल वार्मिंग भी इसी का परिणाम है।
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पर्यावरण विद् जुगलान के अनुसार हिमालय की ऋषि गंगा क्षेत्र में हिमस्खलन से हुई तबाही की बात हो या पिण्डर नदी घाटी में पूर्व में आई बाढ़,या फिर 90 के दशक में उत्तरकाशी में आया विनाशकारी भूकम्प।या फिर इससे पूर्व नदी घाटियों से उपजी बाढ़ की विनाशकारी लीला।कारण लगभग सभी के एक ही हैं और परिणाम भी एक ही है आखिर सभी विनाश को ही जन्म दे रहे हैं।लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हमनें इन आपदाओं से क्या सबक लिया?और जिन्हें हम दैवीय आपदा कह कर देवों को दोष देते हैं तो हम आपदाओं के कारणों में अपनी भूमिका को क्यों भूल जाते हैं।हमने बिलाकूची की बाढ़ देखी है।जब से होश संभाला है गंगा के तटीय उपजाऊ मैदान और गंगा के प्रथम खादर में जन्मभूमि होने के कारण 1971 से लेकर 1979,1998 में सौंग नदी की बाढ़ से भूमिधरी की ग्रामीणों की 108 बीघा भूमि नदी क्षेत्र में समा जाने के कारण किसानों ने इस पर जोत नहीं करने का मन बना लिया।लेकिन वर्ष 2013 के जून में आई जल प्रलय के बाद भी हमारी सरकारें हमारे वैज्ञानिकों ग्रामीणों की आवाज यहाँ तक कि माननीय न्यायालयों के आदेशों को भी नहीं सुन पा रही है।वर्ष 2013 में माननीय न्यायालय के आदेशों पर हिमालय के संरक्षण के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति में सरकार द्वारा दिये गए हलफनामे में सरकार ने भी माना है कि उत्तराखंड हिमालय आकस्मिक आने वाली इन आपदाओं का कारण बाँध परियोजना भी हैं।फिर भी हिमालय के अति संवेदनशील क्षेत्र में जहाँ हमारे बुजुर्ग देवों की धरती पर सिटी बजाने और जोर से चिल्लाने की भी मनाही करते थे,आज उन्ही संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में न केवल हेलीकॉप्टर गड़गड़ा रहे हैं बल्कि बड़ी बाँध परियोजनाओं के निर्माण के बाद जो हिमालयी गड़गड़ाहट होती है उसके परिणाम हम सबके सामने हैं।राष्ट्रीय समाचार के गंगा से जुड़े एक साक्षात्कार में बीते वर्ष उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में छोटे छोटे बाँधों और पन चक्कियों से विद्युत उत्पादन की बात
कहने वाले जुगलान के अनुसार दुर्भाग्य यह है कि ऐसे समाचार को गंभीरता पूर्वक नहीं लिया जाता है।हमें होश तब आता है जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है।वह भी कुछ दिन के लिए जब तक आपदा की यादें ताजा रहती हैं।उसके बाद फिर हम नींद में सो जाते हैं।उन्होंने बताया कि पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने में भी कहीं न कहीं चालाकी की जाती है।इसका उदाहरण आप स्वयं देख सकते हैं कि लोक निर्माण विभाग के अनुसार उत्तराखंड राज्य स्थापना से पूर्व यहाँ सड़को की लंबाई 19 453 यानी लगभग साढ़े उन्नीस हजार किमी थी जो राज्य स्थापना के बादबीस वर्षों में 39504 किमी होगयी है।जबकि नियम यह है कि 100 किमी से अधिक दूरी की सड़क बनाने के लिए पर्यावरण विभाग की ओर से एनवायर्नमेंटल एस्सेमेंट इम्पेक्ट (ई ए आई)के कठोर नियम हैं लेकिन इन्हें एक ही लम्बी सड़क न दिखाकर छोटी छोटी सड़क परियोजनाओं में बांट दिया जाता है।साथ ही सड़को की चौड़ाई में भी राज्य की सरकार अपने ही द्वारा निर्धारित मानदंड को दरकिनार करने में भी गुरेज नहीं करती हैं।एक किमी सड़क निर्माण में 20 से 60 क्यूबिक मीटर डस्ट मलबा उत्तसर्जित होता है तो फिर हमारी चार धाम यात्रा परियोजनाओं में कितना मलबा एकत्र हो रहा है इसका हिसाब हम खुद लगा सकते हैं।इस मलबे के लिए निर्धारित मलबा डंपिंग जोन पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं कि मलबा डंपिंग जोन में एकत्र करने के बजाय सीधे नदी क्षेत्र में डाल दिया जाता है जिससे नदी में बाढ़ आने की संभावनाएं और भी बढ़ जाती हैं।सवाल यह भी है कि जिन हिमालयी क्षेत्रों में मैनुवली सड़क निर्माण की अनुमति दी जाती है तो वहाँ डायनामाइट से विस्फोट कर सड़कें कैसे बनाई जाती हैं क्या सड़क निर्माण के दौरान इनका सोशल ऑडिट जरूरी नही है?दूसरा बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह भी है राज्य स्थापना के 20 वर्षों बाद भी हम राज्य में एक भी ग्लेशियोलॉजी सेन्टर स्थापित नहीं कर पाए जो कि हिमालयी क्षेत्र हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स से पहले यहाँ की सूक्ष्म जानकारी एकत्र कर अध्ययन के पश्चात अपनी रिपोर्ट जारी कर सके।वाडिया इंस्टीट्यूट सेंटर देहरादून में इसे बनाने की अनुमति दी गई थी लेकिन गत वर्ष करोड़ो रूपये खर्च करने के बाद भी इस निर्माण को रोक देना क्या समझदारी का काम था?बात चाहे धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर हो लेकिन यह सत्य बात है कि हमारे वेद पुराण हमारे पूर्वज भी मानते आए है कि प्रकृति देवी है पहाड़ देवता पेड़ पौधों को भी देवताओं का स्थान दिया गया है। पर्यावरण विद् जुगलान के अनुसार घरों के निर्माण के लिए प्रयोग में लाये जाने वाली दार बल्लियों के लिए काटे जाने वाले पेड़ों को भी एक दिन पूर्व पूजकर आने और वनराज से अनुमति लेने की मान्यता को नकारा नहीं जा सकता है।दूसरी बात सनातन पूजा पद्धति में शांति मंत्र ॐ द्यो शांति: अंतरिक्ष: शांति:पृथ्वी शांति:रापः शांति…में पेड़ पौधों और औषधियों वनस्पतियों से भी शांति की प्रार्थना हमारी संस्कृति है।नवरात्र पूजा में प्रथम दिवस की पूजा भी प्रथमे शैल पुत्री से ही की जाती है।पौराणिक धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार प्रकृति और हिमालय के सम्मान को नकारा नहीं जा सकता है।पहाड़ी संस्कृति में पेड़-पौधों नदियों और पहाड़ो से छेड़छाड़ से समाज को हानि की बात कही गयी है।चाहे यह बात धार्मिक और सांस्कृतिक हो लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी हमारे वैज्ञानिक हिमालयी क्षेत्रों में ऊर्जा परियोजनाओं से हिमालय को हो रहे नुकसान की बात और प्रकृति से ज्यादा छेड़ छाड़ के कारण स्पष्ट तौर पर आपदाओं का कारण मानते हैं।जब जब प्रकति से छेड़छाड़ बढ़ी है तब तब आपदाओं के संकेत मिले हैं फिर चाहे वे बड़ी ऊर्जा परियोजनाएं हों या हिमालयी क्षेत्र में विस्फोट और हेलिकॉप्टर्स की गड़गड़ाहट या नदियों के तटीय क्षेत्र में अतिक्रमण करने अवैध निर्माण की बात हो प्रकृति बदलती है तो बादल फटते हैं भूकंप आते हैं और बाढ़ की जल प्रलय भी होती है।देखना यह है कि हम शिक्षा को रोजगार के लिए कब तक पढ़ते रहेंगे या समझदारी के साथ पर्यावरण संतुलन के अध्ययन पर भी जोर देंगे जो हमारे पूर्वज अशिक्षित होकर भी हमेशा प्रकृति को सम्मान देते रहे हैं।