मेले एवं महापर्व देश की संस्कृति का प्रतीक -डॉ राजे सिंह नेगी

मेले एवं महापर्व देश की संस्कृति का प्रतीक -डॉ राजे सिंह नेगी
ऋषिकेश-अंतरराष्ट्रीय गढ़वाल महासभा के अध्यक्ष डॉ राजे सिंह नेगी ने समस्त प्रदेशवासियों को मकर सक्रांति,लोकपर्व खिचड़ी सक्रांति, उत्तरायणी एवं गिन्दी मेले की शुभकामनाएं देते हुए कि देश के पर्व और मेले ही हमारी संस्कृति की पहचान हैं। इस विरासत को संजोकर रखने के लिए मौजूदा दौर के बच्चों एवं युवाओं को इनकी जानकारी देना बेहद आवश्यक है। उन्होंने बताया कि गढ़वाल में हर वर्ष आज के दिन गेंद मैले का आयोजन किया जाता है। कोरोनो संक्रमण के चलते इस बार मेला आयोजित नही किया गया है।
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डॉ नेगी ने मेले से सम्बंधित जानकारी देते हुए बताया कि सबसे पहले पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर ब्लाक स्तिथ थलनदी से गेंद काैथिग का आगाज हुआ था।20 किलोग्राम की गेंद को छीनने का रोमांच है गिंदी कौथिग।उन्होंने जानकारी दी कि इस गेंद मेले का कोटद्वार से लेकर डाडामंडी और यमकेश्वर ब्लाक के थलनदी में बड़ा महत्व है।यही नहीं बल्कि पूरे पौड़ी जिले में यह अनोखा मेला अपनी विशिष्ट अहमियत रखता है। भले ही अब यह मेला कई जगह पर आयोजित किया जाता है, लेकिन इस मेले की उत्पत्ति थलनदी से ही मानी गई है। वर्तमान में कोटद्वार के मवाकोट, द्वारीखाल ब्लाक के डाडामंडी आदि स्थानों पर गिंदी मेला आयोजित किया जाता है।उन्होंने
कौथिग के ऐतिहासिक महत्व की महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताया कि पौराणिक मान्यता के अनुसार यमकेश्वर ब्लाक के अजमीर पट्टी के नाली गांव के जमींदार की गिदोरी नाम की बेटी का विवाह उदयपुर पट्टी के कस्याली गांव में हुआ था। पारिवारिक विवाद होने पर गिदोरी घर छोड़कर थलनदी पर आ गई। उस समय यहां पर दोनों पट्टियों के गांव (नाली और कस्याली) के लोग खेती कर रहे थे। नाली गांव के लोगों को जब यह पता चला कि कि गिदोरी ससुराल छोड़कर आ रही है तो वे उसे अपने साथ ले जाने लगे जबकि कस्याली गांव के लोग उसे वापस ससुराल ले जाने का प्रयास करने लगे। दोनों गांव के लोगों के बीच संघर्ष और छीना झपटी में गिदोरी की मौत हो गई। तब से थलनदी में दोनों पट्टियों में गेंद के लिए संघर्ष होता है।डा नेगी ने बताया मेले का अपना धार्मिक महत्व भी है। पहले गिंदी कौथिक की गेंद मरी हुई गाय की खाल से बनाई जाती थी।अब बकरे की खाल से यह गेंद बनाई जाती है। 20 किलो की इस चमड़े की गेंद के लिए होने वाले खेल के संघर्ष में खिलाड़ियों की संख्या निश्चित नहीं होती।कोई अनर्थ न हो इसके लिए क्षेत्र के महाबगढ़ मंदिर का ध्वज भी खेल के दौरान साथ लाया जाता है।