उत्तराखंडी संस्कृति की पहचान है टोपी-डॉ सुनील दत्त थपलियाल

उत्तराखंडी संस्कृति की पहचान है टोपी-डॉ सुनील दत्त थपलियाल
ऋषिकेश-उत्तराखंड की संस्कृति में टोपी का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। जो मान सम्मान का प्रतीक मानी जाती है ।अनादिकाल से ही टोपी पहनने की परम्परा उत्तराखंड की संस्कृति में है।नगर के शिक्षाविद व विख्यात साहित्यकार डॉ सुनील दत्त थपलियाल ने बताया कि एक दौर ऐसा भी था जब टोपी बड़े-बड़े विवादों को निपटाने का काम करती थी ।यहां तक की गरीबी के दिनों में जब किसी साहूकार से कर्ज लिया जाता था यदि समय पर जमा नहीं किया तो कर्ज लेने वाला साहूकार के पैर में टोपी रखकर कुछ दिन का और समय ले लिया जाता था ।बेटियों की शादियों में यदि दहेज पूरा नहीं हुआ तो बेटी का बाप अपने समधी के पैर में टोपी रखकर समस्या का समाधान कर देता था।हालांकि समय के बदलने के साथ-साथ इसमें भी परिवर्तन आ गया है आने वाली पीढ़ी को टोपी की संस्कृति के बारे में कुछ भी पता नहीं है जिसे बचाने का प्रयास किया जाना चाहिए। शिक्षाविद
डॉ सुनील दत्त थपलियाल की मानेेंं तो उत्तराखंड की पारंपरिक टोपी है जो कि पुराने समय में गांवों से लेकर शहर तक पहनी जाती थी। जिसमें कि कोट या वास्केट के बचे कैप से ही उसी कलर की टोपी निर्मित की जाती थी। लेकिन बदलते दौर में यहां की संस्कृति की प्रतीक रही टोपी अब लोगों की पहुंच से दूर हो गई है। जबकि टोपी का भी अपना इतिहास है। क्षेत्र व समुदाय से लेकर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए भी टोपी पहनने का रिवाज रहा है।बाॅलीवुड से लेकर कविता हो या शायरी या फिर मुहावरा, टोपी कहीं नहीं छूटी है।उत्तराखंड में भी खास तरह की टोपी पहनने की परंपरा रही है, लेकिन पड़ोसी राज्य हिमाचल की तरह यह पहचान नहीं बन सकी है।उन्होंने बताया कि यह दीगर बात हैै कि अक्सर बुजुर्ग सफेद या काली टोपी पहने दिख जाते हैं।माना जाता है कि 18वीं सदी से उत्तराखंड में टोपी पहनने का प्रचलन बढ़ा।उत्तराखंड की पारंपरिक टोपी है जो कि पुराने समय में गांवों से लेकर शहर तक पहनी जाती थी। जिसमें कि कोट या वास्केट के बचे कैप से ही उसी कलर की टोपी निर्मित की जाती थी। लेकिन बदलते दौर में यहां की संस्कृति की प्रतीक रही गांधी टोपी अब लोगों की पहुंच से दूर हो गई है ।