‘दै परोठी ‘की परम्परा भी हुई विलुप्त- कुसुम जोशी

‘दै परोठी ‘की परम्परा भी हुई विलुप्त- कुसुम जोशी

ऋषिकेश-परम्पराओं में सिमटी उत्तराखण्डी संस्कृति बदलते दौर में तेजी से विलुप्त होती जा रही।खासतौर पर वैवाहिक आयोजनों की प्राचीनतम रस्में अब सिर्फ पहाड़ तक ही सीमित रह गई हैं।शहर की युवा पीढी इससे पूरी तरह अंजान है।”दै परोठी” का नाम भी इसमें प्रमुखता से शामिल है।उत्तराखंड की संस्कृति के संरक्षण के लिए कार्य कर रही मैत्री संगठन की अध्यक्ष कुसुम जोशी की मानें तो लकड़ी से कुशल कारीगर द्वारा बनाई जाने वाली यह दै परोठी अब मिलनी उतनी ही बिलक्षण हो गयी जितने शादी में होने वाले धर्म कर्म रीति रिवाज। विडंबना यह भी है कि एक दौर में बिना काष्ठ निर्मित परोठी के कभी दै परोठी मानी ही नहीं जाती थी। फिर वक्त के साथ नजाकत बदली इसका रूप हंडिया ने लिया हम और भौतिकवादी हुए तो हंडियां की जगह लोटे ने ली।उन्होंने बताया कि शुक्र है क़ि गॉव आज भी इस परोठी का महत्व जानते हैं। सीमान्त गॉवों में या जिलों में आज भी परोठी काष्ठ निर्मित ही है। वहां काष्ठ का नामक रखने की कोसडी, घी की काष्ठ कमोळई, काष्ठ की नौंण (मक्खन) व दही परोठी आज भी मिल जाती हैं जो हमारे काष्ठ शिल्पियों की परिश्रम का फल होता था।

मैत्री संस्था की अध्यक्ष कुसुम जोशी के अनुसार दही परोठी क्यों शुभ मानी जाती है उसके पीछे के कई धार्मिक तथ्य है जिन्हें समझने के लिए शोधात्मक तथ्यों की परख होनी आवश्यक है। क्योंकि दही परोठी निर्माण क्यों किया जाता है इस पर पंडित जी भी सिर्फ यही बता पाएंगे क़ि यह शगुन है शुभ माना जाता है।
दही परोठी में विशेषत: गौ के दूध से बनी दही, अपने खेत की कच्ची हल्दी की गाँठ, जिरहल्दी (जंगली हल्दी), समोया, उड़द की दाल से निर्मित पकोड़ी, मालु के पत्ते व रोली-मोली शामिल की जाती थी। समय बदलता गया दही परोठी की वस्तुवें घटती गयी और भौतिकता के संसाधनों की वृद्धि ने कर्मकांड सिर्फ व्यवसायिक माध्यम बना दिया है । दही परोठी में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ, रोली मोली, दही, हल्दी-समोया, और उड़द निर्मित पकोड़ी पंच तत्व गिने गए हैं जो असाध्य रोग हारक, तनबदन शुद्धिदायक, अनिष्टहारक, व व्यथा निवारक, वायु-तपस शीत, जल, प्रकृति इत्यादि में ब्याप्त समस्त ऊर्जाओं के स्रोत संचारक माने गए हैं। मैत्री अध्यक्ष कुसुम जोशी के अनुसार यह परोठी रस्म कन्यापक्ष को वर पक्ष द्वारा इसलिए प्रस्तुत की जाती थी ताकि कन्यापक्ष इस बात से आश्वस्त हो क़ि वर इन सभी लावन्यो का प्रयोग कर स्नान पूर्वक पूरे विधान से कन्या का हाथ मांगने आया है और वधु पक्ष में दुल्हन या उसकी माँ अपनी अंजुली से जौ या मोती (चावल) उस परोठी में भरकर इसलिए देती थी क़ि जाओ हमारी लक्ष्मी आपके घर जो यूँहीं अन्न धन से सम्पन्न रखे आपके कोठार (अन्न पात्र) हमेशा यूँही भरे रहें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
%d bloggers like this: