गुजरे जमाने की सुनहरी याद बना उत्तराखंड का लोकपर्व बग्वाल

गुजरे जमाने की सुनहरी याद बना उत्तराखंड का लोकपर्व बग्वाल

ऋषिकेश- गुजरे जमाने की सुनहरी याद बनकर रह गया है उत्तराखंड का लोक पर बग्वाल।जीं हां यही कड़वी सच्चाई भी है।
आधुनिक युग के इस बाजारवाद के दौर में पहाड़ की लोक परंपराएं भी क्षीण होती जा रही है। पहले गढ़वाल में बग्वाल (दीपावली) से बड़ी मान्यता छोटी बग्वाल की हुआ करती थी, लेकिन अब छोटी बग्वाल मनाने वाले लोग शहरों में आकर सिर्फ दीपावली को ही तरजीह देते हैं। बग्वाल उनके लिए अब गांवभर का आयोजन रह गया है।अन्तरराष्ट्रीय गढ़वाल महासभा के अध्यक्ष समाजसेवी डॉ राजे सिंह नेगी बताते है कि बग्वाल उत्तराखंड का ऐसा ग्राम्य पर्व है, जिसे शरद ऋतु के आगमन पर पारंपरिक तौर पर हर्षोल्लास से मनाया जाता रहा है। एक दौर में जब पहाड़ की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां आज से सर्वथा भिन्न थीं, मनोरंजन के साधन नहीं थे, दैनिक कार्यों के लिए प्रकृति पर निर्भरता अधिक थी, तब यहां का लोक व्यवहार भी इन परिस्थितियों से प्रभावित होता था। लोग बग्वाल के मौके पर घरों व आसपास की साफ-सफाई कर रात को घर-बाहर दीये जलाकर रोशनी करते थे। इस दौरान थडिय़ा-चौंफला की सुरलहरियां वातावरण को आनंदित कर देती थीं।
दीपावली के दौरान धनतेरस से गोवंश की सेवा करने का रिवाज भी पहाड़ में रहा है। तब गायों को गोग्रास या गोपूड़ी से जिमाया जाता था। गोवंश के सींगों पर तेल लगाकर उनके खुरों की सफाई की जाती और फिर उन्हें माला पहनाई जाती। चरने के लिए जंगल ले जाने के बजाय अच्छी घास खूंटे पर ही खिलाई जाती। इस सब में बड़ों के साथ ही बच्चे भी उत्साह के साथ भाग लिया करते थे।

डॉ नेगी ने बताया कि पहाड़ में छोटी दीपावली को बग्वाल पर्व के रूप में व दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद इगास बग्वाल के रूप में मनाया जाता है।बग्वाल के दिन रक्षाबंधन पर हाथ पर बंधे रक्षासूत्र को बछड़ी के पूंछ पर बांधकर मन्नत पूरी होने के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है। शाम के समय ढोल दमाऊं की थाप के साथ चील की छाल से बने भैलो जलाकर भैलो बग्वाल के रूप में इस त्यौहार को आज भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।उन्होंने लोगों से प्रदूषण मुक्त दीपावली मनाने और एक दीया मातृभूमि के लिए शहीद हुए अमर वीर जवानों की याद में जलाए जाने की अपील भी की।

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