भारतीय संस्कृति अर्पण, तर्पण और समर्पण की संस्कृति – स्वामी चिदानन्द सरस्वती

भारतीय संस्कृति अर्पण, तर्पण और समर्पण की संस्कृति – स्वामी चिदानन्द सरस्वती

ऋषिकेश, 2 सितम्बर। पितृपक्ष भारतीय परम्परा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये पवित्र स्थान या नदी के तट पर श्राद्ध किया जाता है। हिंदू धर्म में वैदिक परंपराओं के अनुसार कई रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार व परंपरायें हैं। हमारे शास्त्रों में गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक के संस्कारों का उल्लेख है और श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इस पखवाडें में अपने-अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने हेतु पूजन कर्म किया जाता है।

परमार्थ निकेेतन के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने कहा कि उन्नत संस्कृति एवं सभ्यता के विकास के लिये नितांत आवश्यक है कि समाज के सांस्कारिक पक्ष को समुन्नत, सशक्त एवं सबल बनाये रखा जाये। समाज का विकसित स्वरूप जिसमें न केवल अतीत की परम्पराओें, संस्कारों, रीति-रिवाजों को समुचित स्थान दिया जाता है अपितु भावी पीढ़ी के सतत अस्तित्व व विकास के लिये नयी पीढ़ी को पारम्परिक मान्यताओं से जोड़ा जाना भी आवश्यक है ताकि परम्पराओं के साथ साथ पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके। भारतीय परम्परा में ’’वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना निहित है। हमारी संस्कृति ’अर्पण, तर्पण और समर्पण’ की संस्कृति है। इस ’अर्पण, तर्पण और समर्पण’ की त्रिवेणी में ऋषियों का बहुत बड़ा योगदान है। हमारे ऋषियों ने समाज की उन्नति के लिये स्वयं को समर्पित किया। जिनकी वजह से आज हम और हमारी संस्कृति जीवंत है। अब समय आ गया है, जब हम पितृ तर्पण करे तो साथ में पेड़ अर्पण भी करें। लोग खीर अर्पण करते है साथ ही अन्य वस्तुओं का दान करते हैं, हम अपने पितरों को खीर तो अर्पण करे लेकिन नीर को बचाने का भी संकल्प लें, ’पितृ तर्पण, पेड़ अर्पण का संकल्प लें’ तभी हम अपने पर्यावरण और भावी पीढ़ियों को स्वस्थ और सुरक्षित भविष्य दें सकते हैं। पृथ्वी से कम होता जल और ऑक्सीजन वर्तमान और भविष्य दोनों पीढ़ियों के लिये भयावह है। जब तक पर्यावरण सुरक्षित है तभी तक मानव का जीवन सम्भव है ।

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