आदिवासी प्रकृति के पूजक ही नहीं बल्कि संरक्षक भी- स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज

आदिवासी प्रकृति के पूजक ही नहीं बल्कि संरक्षक भी- स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज
ऋषिकेश- परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज ने विश्व स्वदेशी आबादी अन्तर्राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर कहा कि आदिवासियों ने अपनी परम्परागत संस्कृति को बनाये रखा है, वे आज भी अपने मूल और मूल्यों से जुड़े हुये हैं।
दुनिया भर के स्वदेशी लोगों (आदिवासी) के अधिकारों के संरक्षण और संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को स्वदेशी आबादी अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है ताकि इसके माध्यम से दुनिया की स्वदेशी आबादी के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जा सके और उनकी रक्षा की जा सके। स्वदेशी लोगों का पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु बहुत बड़ा योगदान है। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था। स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज ने कहा कि स्वदेशी आबादी ने दुनिया की सांस्कृतिक विविधता को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सांस्कृतिक और जैविक विविधता को बनायें रखने में भी योगदान है। स्वदेशी आबादी पूर्ण रूप से प्राकृतिक जीवन यापन कर हमारे प्राकृतिक स्रोत यथा नदी, तालाब, झरने, पेड़़-पौधे और पर्वत शिखरों के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज ने कहा कि स्वदेशी आबादी का संबंध प्रकृति से है, वे प्राकृतिक जड़ी बूटियों का सेवन करते हैं, वे वन उत्पादों यथा इमली, महुआ के फूल, महुआ के बीज, पहाड़ी झाड़ू, चिरौंजी, शहद, साल के बीज, साल की पत्तियाँ, बाँस, आम, आँवला, तेजपात, इलायची, काली मिर्च, हल्दी, सौंठ, दालचीनी, आदि अनेकों उत्पादों का उत्पादन और संरक्षण करते हैं तथा उनके भोजन में वनों से प्राप्त आहार की प्रधानता होेती है जिससे उनके शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी मजबूत रहती है। वर्तमान में कोविड- 19 के समय में लगभग पूरा देश उन देशी औषधियों को स्वीकार कर रहा है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज ने स्वदेशी आबादी की एक अलग संस्कृति, अलग रीति-रिवाज, अलग भाषा होती है तथा वे प्रकृति पूजक होते हैं। मेरा तो मानना है कि आज जो जंगल बचे हैं और उन जंगलों में जो विविध जाति के पेड़-पौधें पाये जाते हैं उनके संरक्षण में आदिवासियों का महत्वपूर्ण योगदान है। वे प्रकृति के पूजक ही नहीं बल्कि संरक्षक भी हैं। आदिवासियों की संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को एक अनोखी पहचान दी है। वैसे तो विविधता में एकता ही भारतीय संस्कृति की पहचान है तथा संस्कृति का विविधीकरण ही जीवन को जीवंत बनायें रखता है।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती महाराज ने कहा कि भारत की विश्व स्तर पर अपनी उत्कृष्ट पहचान है, हमारा देेश एक सशक्त, उन्नत और समृद्ध राष्ट्र है, उसके बाद भी हमारे देश का एक तबका आज भी अनेक मामलों में हाशिये पर है और वह है आदिवासी, वे सुदूरवर्ती इलाकों में रहते हैं जहां कई जगहों पर शिक्षा, स्वास्थ्य और मौलिक जरूरतों का अभाव है। उन तक बुनियादी सुविधाएं पहुंच सके इसका खास ख्याल रखने की जरूरत है।