हरियाली और हरित संस्कृति का प्रतीक है हरेला पर्व – स्वामी चिदानन्द सरस्वती

हरियाली और हरित संस्कृति का प्रतीक है हरेला पर्व –
स्वामी चिदानन्द सरस्वती
ऋषिकेश- हरेला पर्व, उत्तराखंड की हरित संस्कृति का प्रतीक है और यह हमारी हरित संस्कृति को भी उजागर करता हैं। यह पर्व उत्तराखंड का एक महत्वपूर्ण लोक त्योहार है जिसमें फसलों की समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है।
परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने प्रदेशवासियों को हरेला पर्व की शुभकामनायें देते हुये कहा कि हरियाली और अपार जलराशि से युक्त हमारे उत्तराखंड को और समृद्ध बनाने के लिये वृक्षारोपण, वृक्षों का संवर्द्धन और संरक्षण बहुत जरूरी है। एक वृक्ष सौ पुत्रों के समान है और वृक्षों को इतनी महत्ता इसलिये दी गयी है क्योंकि पुत्रों का, पीढ़ियों का, परिवारों का भरण-पोषण भी तभी हो पायेगा जब पृथ्वी पर पेड़ होंगे; पेड़ होंगे तो पानी होगा और पानी होगा तो ही जीवन होगा। स्वामी जी ने कहा कि पेड़ है तो पानी है, पानी है तो जीवन है और जीवन हैं तो दुनिया है।
आज हरेला के पावन अवसर पर परमार्थ निकेतन में स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी, साध्वी भगवती सरस्वती जी एवं परमार्थ गुरूकुल के ऋषिकुमारों ने सोशल डिसटेंसिंग का गंभीरता से पालन करते हुये परमार्थ प्रांगण में अशोक के पौधों का रोपण किया। इस अवसर पर स्वामी चिदानंद ने कहा कि उत्तराखंड की धरती दिव्य संस्कारों से युक्त है और हरेला शब्द का तो तात्पर्य ही हरयाली से हैं। हरेला, हमें प्रकृति की सम्पन्न्ता और समृद्धि से परिचय कराता है। हमारे राज्य ने तो प्रकृति संरक्षण के अनेेक उदाहरण दिये है। चमोली, उत्तराखंड की गौरा देवी, सहित कई महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया था। इस आंदोलन ने पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
वर्तमान समय में हम सभी को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक होना होगा क्योंकि पर्यावरण असंतुलन का कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण असंतुलन के कारण प्राकृतिक आपदाओं के साथ पहाड़ी राज्यों को अनेक चुनौतीपूर्ण समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। हरेला पर्व हमें यही संदेश देता है, हरेला मनाये, हरियाली लाये, खुशहाली पाये।