उत्तराखण्ड की संस्कृति में ढोल दमाऊ के बिना अधूरा माना जाता है हर शुभ कार्य-सुनील दत्त थपलियाल

उत्तराखण्ड की संस्कृति में ढोल दमाऊ के बिना अधूरा माना जाता है हर शुभ कार्य-सुनील दत्त थपलियाल
ऋषिकेश-अपणि संस्कृति अपणि पछयाण देवभूमि की परम्परा का सबसे महत्वपूर्ण सूक्ति है।इस पावन पवित्र भूमि के कंकर कंकर मे शंकर की धरा माना जाता है।
इसलिए इस धरा धाम को देवभूमि नाम से सुशोभित किया गया जहाँ 33 कोटि देवता निवास करते है , जिन्हें हमेशा पूजापाठ के साथ विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाकर प्रसन्न किया जाता है । पाण्डवारत, थोल कौथिग, मेला मंडाण , देवतों का थान , आछरि मात्रि, पीड़ भराड़ीकी जात यही नहीं यहां का प्रत्येक
शुभकार्य उत्तराखंड के वाद्ययंत्र ढोल-दमाऊ की गूंज के बिना अधूरे होते हैं।गढवाल की संस्कृति की गहरी समझ रखने वाले शिक्षाविद सुनील दत्त थपलियाल ने बताया कि उत्तराखंड में वाध्य यंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।घर मे बच्चे का जन्म हो या देश विदेश से कोई कुशल मंगल घर आया हो , हर 16 संस्कारों के साथ . मंगनी-विवाह जैसे शुभ कार्य में तो ये हमारी संस्कृति का हिस्सा होते हैं। शिक्षाविद थपलियाल के अनुसार गाँव में मंगनी और विवाह में दास मंगल बाजा बजा कर ख़ुशी की घडी के उत्साह को और बढ़ा देते हैं। मंगनी, सह्पट्टा के दिन ढोल-दमाऊ वाले मेहमानों के स्वागत के लिए आते हैं।वर पक्ष और कन्या पक्ष के अपने-अपने बाजगी होते हैं उनका अपने क्षेत्र का पहला परिचय ढोल दमाऊं की थाप से ही होता था।
वर पक्ष वाले जब घर से शुभ कार्य के लिए निकलते थे तो ढोल-दमाऊ-मशक बाजा बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया जाता था। ठीक उसी तरह कन्या पक्ष के बाजगी (दास) अपने यहां अतिथियों का ढोल से आदर करते हुए अगवानी करते थे। शादी में ढोल-दमाऊ वाले बाजगी साथ चलते थे,रास्ते मे उकाल उंदियार बजाई जाती थी ।मंगनी, सह्पट्टा में ये उस परिवार की स्थिति एवं इच्छा के अनुरूप चलते थे। लड़की वालों के यहाँ उनके बाजगी मौजूद रहकर मेहमानों के सम्मान में ढोल बजाते थे। रात होने पर तथा रात खुलने से पहले अंतिम पहर मे दास द्वारा नोबत लगाई जाती थी। नोबत ढोल-दमाऊ की विभिन्न थाप के जरिये बजाये जाने वाले कुछ विशेष ताल होते थे।इनमे सबसे पहले भूमि के भुम्याल और देवताओं के आह्वान के बाजे कई तालों में बजाये जाते थे।रात की नोबत में भूत-मशाण के भी ताल बजाये जाते. मंगल कार्य के सन्देश संबंधी कई ताल ढोल से बजाए जाते थे. ये लोग ढोल सागर के जानकार होते थे. ढोल एवं ढोली को मेहमानों जैसी ही पिठाई लगाई जाती थी।गढ संस्कृति के विभिन्न संगठनों से जुड़े शिक्षाविद थपलियाल ने बताया कि उत्तराखंड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में ढोल वादन की बहुत पुरानी और समृद्ध परंपरा रही है ।लेकिन समय के साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजानेवाले कलाकार हाशिये पर जाने लगे हैं। पलायन की पीड़ा व गांव खाली होने के कारण इन विधाओं मे भी परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं । ऐसे में कुछ संस्कृतिकर्मियों और लोककलाकारों ने ढोल और सोलह ठेठ पहाड़ी साज़ों को मिलाकर अनूठा ऑर्केस्ट्रा तैयार किया है। अब तक इन साज़ों को अलग-अलग ही बजाया जाता था या ज़्यादा से ज़्यादा दो या तीन साज की जुगलबंदी होती थी।लेकिन पहली बार एक दर्जन से अधिक लोकवाद्यों को एक साथ एक जगह रख दिया गया है।अब ढोल, दमाऊ, हुड़का, मुर्छुंद, थाली, करनाल, मशकबीन, अलगोजा, डाँर, दांया और बांया नगाड़ा, पकोरे, रणसींगा तथा स्कॉटिश बैगपाइप की संगत कराई गई है. स्कॉटिश बैगपाइप तो अंग्रेजों के जमाने में सेना के जरिये यहां पंहुचा फिर यहीं के वाद्य परिवार में शामिल हो गया। इस ऑर्केस्ट्रा से लुप्त हो रहे कई साजों और धुनों को एक नया जीवन मिल गया है।मशहूर संस्कृति कर्मी कहते हैं की “हमारी कोशिश इन वाद्यों और इन्हें बजानेवालों को पेशेवर रूप देकर इन्हें मान्यता दिलाने की है। पहाड़ में ढोल के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां न केवल ढोल बजाने की कई अलग-अलग शैलियाँ हैं बल्कि सैकड़ों ताल प्रचलित हैं।ढोल के व्याकरण और इसकी उत्पत्ति को लेकर यहां एक मौखिक परंपरा भी रही है जिसे “ढोल सागर” कहते हैं।थपलियाल ने जानकारी दी कि
दंतकथाओं के अनुसार ढोल की उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई है और ढोल सागर को सबसे पहले स्वयं शिव ने पार्वती को सुनाया था। जब वो इसे सुना रहे थे तब वहाँ मौजूद एक गण ने इसे कंठस्थ कर लिया। तब से ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चला आ रहा है। वैसे मूल ग्रंथ संस्कृत और गढ़वाली बोली में है। ढोलसागर में प्रकृति, मनुष्य, देवताओं और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं। हर जगह भिन्नता मिलती है तालों के बजाने मे “उत्तरांचल की सभी छह घाटियों धौलीगंगा, मंदाकिनी, टिहरी, गंगोत्री, यमुना और जौनसार बाबर के ढोलों में लय और ताल की विभिन्नता देखने लायक है, जैसे मंगल बड़ई का ताल टिहरी में अलग है और पौड़ी में इसका मात्राएँ अलग हैं और इस वैविध्य को देखें तो ढोलसागर के कुल तालों की संख्या लगभग 600 हो जाती हैं।ढोल और दमाऊ एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं।जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजानेवाले ‘औजी’ या ढोली के बगैर पूरा होता हो। औजी प्राय: समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं।उन्होंने बताया कि
बदलते परिवेश पर यदि दृष्टिपात करें तो अब उत्तराखण्ड मे इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले लोगों की जीवन शैली मे बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। गांव से शहरों की तरफ बढ़ते कदम परम्परागत व्यवसाय को तिलांजलि देते से लगते हैं । पहले तो
पूरा गांव इनका संरक्षक होता था, और इन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता है लेकिन सदियों से चली आ रही ये व्यवस्था अब तेज़ी से बिखरने लगी है ।हांलाकि संस्कृति के संवाहक गीतों के माध्यम से , इन वाद्य यंत्रों के संरक्षण की कोशिशें अभी भी निरंतर जारी हैं।